सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत
सामान्य सापेक्षता सिद्धांत, जिसे अंग्रेजी में "जॅनॅरल थीओरी ऑफ़ रॅलॅटिविटि" कहते हैं, एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो कहता है के ब्रह्माण्ड में किसी भी वस्तु की तरफ़ जो गुरुत्वाकर्षण का खिचाव देखा जाता है उसका असली कारण है के हर वस्तु अपने मान और आकार के अनुसार अपने इर्द-गिर्द के दिक्-काल(स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है। बरसों के अध्ययन के बाद जब १९१६ में ऐल्बर्ट आइनस्टाइन ने इस सिद्धांत की घोषणा की, तो विज्ञान की दुनिया में तहलका मच गया और ढाई-सौ साल से क़ायम आइज़क न्यूटन द्वारा १६८७ में घोषित ब्रह्माण्ड का नज़रिया हमेशा के लिए उलट दिया गया। भौतिक शास्त्र पर इसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा के लोग आधुनिक भौतिकी (माडर्न फ़िज़िक्स) को शास्त्रीय भौतिकी (क्लासिकल फ़िज़िक्स) से अलग विषय बताने लगे और ऐल्बर्ट आइनस्टाइन को आधुनिक भौतिकी का पिता माना जाने लगा।दिक्-काल (स्पेस-टाइम)
न्यूटन की शास्त्रीय भौतिकी में यह कहा जाता था के ब्रह्माण्ड में हर जगह समय (काल) की रफ़्तार एक ही है। अगर आप एक जगह टिक के बैठे हैं और आपका कोई मित्र प्रकाश से आधी गति की रफ़्तार पर दस साल का सफ़र तय करे तो, उस सफ़र के बाद, आपके भी दस साल गुज़र चुके होंगे और आपके दोस्त के भी। लेकिन आइनस्टाइन ने इसपर भी कहा के ऐसा नहीं है। जो चीज़ गति से चलती है उसके लिए समय धीरे हो जाता है और वह जितना तेज़ चलती है समय उतना ही धीरे हो जाता है। आपका मित्र अगर अपने हिसाब से दस वर्ष तक रोशनी से आधी गति पर यात्रा कर के लौट आये, तो उसके तो दस साल गुज़रेंगे लेकिन आपके साढ़े ग्यारह साल गुज़र चुके होंगे।
आइनस्टाइन ने सापेक्षता सिद्धांत में दिखाया के वास्तव में दिक् के तीन और काल का एक मिलाकर ब्रह्माण्ड में चार पहलुओं वाला दिक्-काल है जिसमे सारी वस्तुएं और उर्जाएँ स्थित होती हैं। यह दिक्-काल स्थाई नहीं है - न दिक् बिना किसी बदलाव के होता है और न यह ज़रूरी है के समय का बहाव हर वस्तु के लिए एक जैसा हो। दिक्-काल को प्रभाव कर के उसे मरोड़ा, खींचा और सिकोड़ा जा सकता है और ऐसा ही ब्रह्माण्ड में होता है।
मनुष्यों को दिक्-काल में बदलाव क्यों नहीं प्रतीत होता
दिक्-काल में बदलाव हर वस्तु और हर रफ़्तार पैदा करती है लेकिन बड़ी वस्तुएं और प्रकाश के समीप की रफ्तारें अधिक बदलाव पैदा करती हैं। मनुष्यों का अकार इतना छोटा और उसकी रफ़्तार इतनी धीमी है के उन्हें सापेक्षता सिद्धांत के आसार अपने जीवन में नज़र ही नहीं आते, लेकिन जब वह ब्रह्माण्ड में और चीज़ों का ग़ौर से अध्ययन करते हैं तो सापेक्षता के चिन्ह कई जगहों पर पाते हैं।सापेक्षता और गुरुत्वाकर्षण
न्यूटन का मानना था के हर वस्तु में एक अपनी और खीचने की शक्ति होती है जिसे उसने गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटी) का नाम दिया। पृथ्वी जैसी बड़ी चीज़ में यह गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है, जिस से कि हम पृथ्वी से चिपके रहते हैं और अनायास ही उड़ कर अंतरिक्ष में नहीं चले जाते। आइनस्टाइन ने कहा के गुरुत्वाकर्षण की यह समझ एक झूठा भ्रम है। उन्होंने कहा के पृथ्वी बड़ी है और उसकी वजह से उसके इर्द-गिर्द का दिक्-काल मुड़ गया है और अपने ऊपर तह हो गया है। हम इस दिक्-काल में रहते हैं और इस मुड़न की वजह से पृथ्वी के क़रीब धकेले जाते हैं। इसकी तुलना एक चादर से की जा सकती है जिसके चार कोनो को चार लोगों के खींच के पकड़ा हो। अब इस चादर के बीच में एक भारी गोला रख दिया जाए, तो चादर बीच से बैठ जाएगी, यानि उसके सूत में बीच में मुड़न पैदा हो जाएगी। अब अगर एक हलकी गेंद हम चादर की कोने पर रखे तो वह लुड़ककर बड़े गोले की तरफ़ जाएगी। आइनस्टाइन ने कहा के कोई अनाड़ी आदमी यह देख कर कह सकता है के छोटी गेंद को बड़े गोले ने खींचा इसलिए गेंद उसके पास गयी। लेकिन असली वजह थी के गेंद ज़मीन की तरफ़ जाना चाहती थी और गोले ने चादर में कुछ ऐसी मुड़न पैदा करी के गेंद उसके पास चली गयी। इसी तरह से उन्होंने कहा के यह एक मिथ्या है के गुरुत्वाकर्षण किसी आकर्षण की वजह से होता है। गुरुत्वाकर्षण की असली वजह है के हर वस्तु जो अंतरिक्ष में चल रही होती है वह दिक् के ऐसी मुड़न के प्रभाव में आकर किसी बड़ी चीज़ की ओर चलने लगती है।गुरुत्वाकर्षण और प्रकाश
आइनस्टाइन के इस सनसनी फैला देने वाले सिद्धांत का एक बहुत बड़ा प्रमाण रोशनी पर गुरुत्वाकर्षण का असर देखने से आया। न्यूटन की भौतिकी में सिद्धांत था के दो वस्तुएं एक-दुसरे को दोनों के द्रव्यमान(अंग्रेजी में "मास") के अनुसार खींचती हैं। लेकिन प्रकाश का तो द्रव्यमान होता ही नहीं, यानि शून्य होता है। तो न्यूटन के मुताबिक़ जिस चीज़ का कोई द्रव्यमान या वज़न ही नहीं उसका किसी दूसरी वस्तु के गुरुत्वाकर्षण से खिचने का सवाल ही नहीं बनता चाहे दूसरी वस्तु कितनी भी बड़ी क्यों न हो। प्रकाश हमेशा एक सीधी लकीर में चलता ही रहता है। लेकिन अगर आइनस्टाइन सही है और किसी बड़ी वस्तु (जैसे की ग्रह या तारा) की वजह से दिक् ही मुड़ जाए, तो रोशनी भी दिक् के मुड़न के साथ मुड़ जानी चाहिए। यानि की ब्रह्माण्ड में स्थित बड़ी वस्तुओं को लेंस का काम करना चाहिए - जिस तरह चश्मे, दूरबीन या सूक्ष्मबीन का लेंस प्रकाश मोड़ता है उसी तरह तारों और ग्रहों को भी मोड़ना चाहिए।१९२४ में एक ओरॅस्त ख़्वोलसन नाम के रूसी भौतिकविज्ञानी ने आइनस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को समझकर भविष्यवाणी करी के ऐसे गुरुत्वाकर्षक लेंस ब्रह्माण्ड में ज़रूर होंगे। पचपन साल बाद, १९७९ में पहली दफ़ा यह चीज़ देखी गयी जब ट्विन क्वेज़ार नाम की वस्तु की एक के बजाए दो-दो छवियाँ देखी गयी। उसके बाद काफ़ी दूर-दराज़ वस्तुओं की ऐसी छवियाँ देखी जा चुकी हैं जिनमें उन वस्तुओं और पृथ्वी के बीच कोई बहुत बड़ी अन्य वस्तु राखी हो जो पहली वस्तु से आ रही प्रकाश की किरणों पर लेंसों का काम करे और उसकी छवि को या तो मरोड़ दे या आसमान में उसकी एक से ज़्यादा छवि दिखाए।