08 जनवरी, 2012
आम आदमी और आइंस्टाइन
आइन्स्टाइन और चार्ली चैप्लिन दोनों का भव्य स्वागत हो रहा था। लोग ज़ोर ज़ोर से तालियां बजाकर आपनी खुशी और अपना आदर अभिव्यक्त कर रहे थे । दोनों में बातचीत हो रही थी। चार्ली चैप्लिन ने आइन्स्टाइन से हँसते हुए कहा, “ यह लोग जो खुशी दिखला रहे हैं, ये मुझे समझते हैं इसलिये दिखला रहे हैं, और आपको भी देखकर अपनी खुशी बतला रहे हैं क्योंकि वे आपको नहीं समझते हैं।" यह कितना सच और गहरा अवलोकन है। आइंस्टाइन ने इतने गहरे सत्य की खोज की है, जिसे बड़े बड़े वैज्ञानिक सत्य सिद्ध कर रहे हैं, किन्तु वह सत्य आम लोगों की समझ से परे है, तब भी वे बेहद खुशी का प्रदर्शन कर रहे हैं। उन दिनों आइन्स्टाइन का उतना ही स्वागत होता था, लोग उनके उतने ही दीवाने थे जितने आज तेंदुलकर के या अमिताभ बच्चन के !
आइंस्टाइन के ‘सापेक्षता सिद्धान्त’ को पढ़ा लिखा आदमी भी अक्सर एक उदाहरण से समझाता है – मान लें कि आप किसी सुन्दर षोडषी के साथ प्यार भरी बातें कर रहे हैं तब कुछ घण्टे भी आपको कुछ मिनिट के बराबर लगेंगे। और यदि आपको किसी बूढ़ी कर्कशा से बातें करना पड़े तब कुछ मिनिट ही कुछ घण्टे के बराबर लग सकते हैं–।अर्थात ‘समय’ अनुभव करने वाले के अनुभव पर निर्भर करता है, अर्थात ‘समय’ निरपेक्ष नहीं है, अनुभव सापेक्ष है।यह उदाहरण आइन्स्टाइन के 1905 के विशेष सापेक्षता के अद्भुत नियम के साथ घोर अन्याय करता है।
आइंस्टाइन ने 1916 में अपना क्रान्तिकारी ‘निर्विशेष सापेक्षता सिद्धान्त प्रस्तुत किया’। उन्होंने भविष्य वाणी की 1919 में सूर्यग्रहण के दौरान एडिंग्टन द्वारा किये गये प्रयोग ने आइंस्टाइन के निर्विशेष सापेक्षता के सिद्धान्त की एक भविष्यवाणी को प्रमाणित किया – कि प्रकाश किरण भी ग्ुारुत्वाकर्षण के नियमों का पालन करती है।यह 1्र919 के पूर्व सभी वैज्ञानिकों को अविश्वसनीय तथा रहस्यमय लग रहा था।यद्यपि प्रकाश के कण फोटानों में द्रव्य की मात्रा नहीं होती किन्तु मात्र उनकी ऊर्जा के कारण उनमें द्रव्य के गुण होते हैं।इसलिये किरणों को गुरुत्वाकर्षण का नियम पालन करना पड़ेगा। और सूर्यग्रहण के समय एक ज्ञात तारे की दिशा नापी गई।इस दिशा में उतना ही अंतर पाया गया जितना कि उस किरण में सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण आता। इस अद्भुत सफलता के बाद आइंस्टाइन बहुत लोकप्रिय हो गये थे, यद्यपि उन्हें तब तक नोबेल पुरस्कार भी नहीं मिला था।यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि आम आदमीउनके ‘सापेक्षता के सिद्धान्तों से क्यों इतना अभिभूत है, क्योंकि उनका सिद्धान्त आम आदमी की दुनिया से दूर, जटिल भौतिक जगत के नियमों को दर्शाता है।वे नियम अंतःप्रज्ञा अथवा सामान्य बोध के न केवल परे हैं वरन उनका विरोध करते हैं।सामान्य बोध से तो आम आदमी यही समझता है कि समय तथा दिक दोनों भौतिक प्रक्रियाओं से स्वतंत्र हैं अर्थात निरपेक्ष हैं।यह सामान्य समझ से परे की बात है कि तीव्र वेग वाली वस्तु में समय की गति धीमी वस्तु के समय की गति की अपेक्षा धीमी होगी।समय तथा दिक में वेग के अनुसार संकुचन या विस्फारण का होना सामान्य बोध के विपरीत ही हैं।आइन्स्टाइन के सिद्धान्त को मनोविज्ञान के या मानसिक सापेक्ष समय तथा दिक से कुछ भी लेना देना नहीं है।हां इसका आम आदमी पर इतना प्रभाव अवश्य पड़ा कि अब वह समय तथा दिक की निरपेक्षता के विषय में उतना कट्टर नहीं रहा।यह दूसरी बात है कि भारतीय पुराणों या आध्यात्मिकता का कुछ ज्ञान भी रखने वाला व्यक्ति यह सुनकर प्रसन्न हुआ क्योंकि उनमें समय तथा दिक दोनों ही निरपेक्ष न होकर ब्रह्म के सापेक्ष हैं।मेरा ऐसा मानना है कि आम आदमी आइंस्टाइन के सिद्धान्तों का उस के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर जानकारी का स्वागत ही करेगा।
प्रिन्सैस डायैन की मृत्यु चनैलह्यइंग्लिश चैनैल में टनैलहृ के अन्दर कार दुर्घटना में हुई। यदि आइंस्टाइन ने लेज़र का मूलभूत सिद्धान्त न खोजा होता तो बहुत संभव है कि प्रिन्सैस डायैन की मृत्यु चनैल के अन्दर कार– दुर्घटना से न होती क्योंकि तब तक चनैल बन ही न पाती। आइंस्टाइन ने एक प्रपत्र – ‘ऑन द क्वाण्टम थ्योरी ऑफ रेडियेशन’ ह्यविकिरण के क्वाण्टम सिद्धान्त परहृ सन 1917 में प्रस्तुत किया था। आइंस्टाइन की इस खोज ने ‘लेज़र’ के आविष्कार को संभव बनाया।लेज़र की ही मदद से चनैल का निर्माण काल आधा हो गया क्योंकि चनैल का निर्माण दोनें छोरों से प्रारंभ हो सका। टनैल या सुरंग की खुदाई करते समय तीनो आयामों में सही दिशा में चलने की आवश्यकता होती है।टनैल के भीतर चुम्बकीय कम्पस भी., एक तो, ऊध्र्वाधर दिशा का ज्ञान नहीं दे सकती, दूसरे, क्षैतिज दिशा का भी सही ज्ञान नहीं दे पाती।अतएव लम्बी टनैल बनाते समय शुरू तो ठीक बिन्दु से कर सकते हैं किन्तु उसका मुख कहां खुलेगा इसे परिशुद्धता से नहीं कहा जा सकता।इसलिये चनैल के निर्माण के समापन के निकट जब चनैल के बीच में दोनों ओर से निर्मित चनैलें गले मिलीं तब वह क्षण एक रहस्यमय उमंग तथा आनन्दमय उत्सव बन गया था, जिसे मेरे सहित लाखों दर्शकों ने टीवी पर ‘लाइव’ ह्यजीवन्तहृ देखा था।चनैल को एक छोर से बनाने में समय तो दुगना लगता ही. है, खर्च भी डेढ़ गुना हो जाता है और उसका मुख कहां खुलेगा यह अन्त तक एक रहस्य बना रहता है।
‘ऑन द क्वाण्टम थ्योरी ऑफ रेडियेशन’ ह्यविकिरण के क्वाण्टम सिद्धान्त परहृ के सिद्धान्त की खोज के बहुत पहले– 1905 में – श्री आइंस्टाइन ह्यडाक्टर नहींहृ ने ‘प्रकाश–विद्युत प्रभाव’ का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था जिसकी खोज पर ही उन्हें 1921 में नोबेल पुरस्कार मिला था। आश्चर्य है कि उन्हें आज तक की भौतिक विज्ञान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा चमत्कारिक खोजें – विशेष सापेक्षिक सिद्धान्त ह्य1905हृ तथा निर्विशेष सापेक्षिक सिद्धान्त ह्य1916हृ – पर नोबेल पुरस्कार नहीं मिले। आइंस्टाइन की यह दोनो खोजें इतनी क्रान्तिकारी हैं कि उन्हें दो बार नोबेल पुरस्कार और मिल सकते थे।1905 में जब श्री ह्यडाक्टर नहींहृ आइंस्टाइन ने विशेष सापेक्ष सिद्धान्त को डाक्टरेट के लिये प्रस्तुत किया था तब उस कमेटी ने उसे इस टिप्पणी के साथ लौटा दिया था, ‘यह सिद्धान्त बहुत रहस्यमय ह्यअनकैनीहृ है’।शायद नोबेल पुरस्कार समिति ने भी वर्षों तक ंयही सोचा हो ॐ और यदि अधिकांश विश्व आज तक ऐसा ही सोचता नज़र आता है तब इसमें क्या आश्चर्य।
क्या है वह – ‘ऑन द क्वाण्टम थ्योरी ऑफ रेडियेशन’ ह्यसन 1917हृ वाला सिद्धान्त, और लेज़र से उसका क्या संबंध है ? इसके पहले हम उनके 1905 में प्रस्तुत किये गये ‘प्रकाश–विद्युत प्रभाव’ के सिद्धान्त पर भी विचार कर लें ताकि हम उनके लेज़र वाले सिद्धान्त को ठीक से समझ सकें। यह खोज कि ‘कुछ पदार्थ, विशेषकर कुछ धातु की पट्टिकाएं या प्लेटें, प्रकाश किरणें गिरने पर इलैक्ट्रानों का उत्सर्जन करती हैं’ 1839 में फ्रान्स में हो चुकी थी। किन्तु इसकी जो गहरी वैज्ञानिक व्याख्या आइंस्टाइन ने 1905 ही में अपने प्रपत्र –‘आन ए ह्युरिस्टिक पॉइन्ट ऑफ व्यू कन्सर्निंग द प्रोडक्शन एन्ड ट्रान्सफॉर्मेशन ऑफ लाइट’ में दी वह क्रान्तिकारी प्रमाणित हुई।उन्होने देखा कि पदार्थोंं से उत्सर्जित इलैक्ट्रानों की संख्या प्रकाश की तीव््राता पर निर्भर करती है किन्तु उत्सर्जित इलैक्ट्रानों का वेग उस तीव्रता पर निर्भर नहीं करता।इसे प्रकाश के तरंग सिद्धान्त द्वारा नहीं समझा जा सकता क्योंकि उसके अनुसार उत्सर्जित इलैक्ट्रानों का वेग भी प्रकाश की तीव््राता पर निर्भर करना चाहिये।अतः इसे समझाने के लिये उन्होने यह प्रतिपादित किया कि प्रकाश की किरणें मात्र तरंगें न होकर कणों का प्रवाह हैं।तीव्र प्रकाश किरण में कणों की संख्या अधिक होती है इसलिये वे अधिक संख्या में इलैक्ट्रानों का उत्सर्जन करते हैं। उन्होने यह भी खोजा कि उन इलैक्ट्रानों का उत्सर्जन–वेग प्रकाश की तीव््राता पर निर्भर न कर उसके रंग पर निर्भर करता है और प्रत्येक कण की ऊर्जा उनके रंग अर्थात उस विद्युत चुम्बकीय तरंग की आवृत्ति पर निर्भर करती है।उदाहरणार्थ जामुनीे रंग के प्रकाश कणों ह्यफोटानहृ में लाल रंग के कणों से अधिक उर्जा होती है अतएव वे उत्सर्जित इलैक्ट्रानों को अतिरिक्त उर्जा या वेग प्रदान करते हैं।अर्थात उन्होने स्थापित किया कि प्रकाश के विभिन्न रंगों में विभिन्न ऊर्जाएं होती हैं, तथा प्रकाश के वर्णक्रम में कणों की ऊर्जा लाल रंग से लेकर जामुनी रंग तक बढ़ती जाती हैऌ प्रकाश ही नहीं, समस्त विद्युतचुम्बकीय किरणें की ऊर्जा उनकी आवृत्ति के अनुसार बढ़ती जाती है। यह अपने आप में क्रांतिकारी खोज थी और साथ ही अब यह स्वीकार किया जाने लगा कि प्रकाश दोनों रूपों – तरंग तथा कण – में हो सकता है।प्रकाश के दो रूपों– कणों तथा तरंग– के बीच समन्वय फ्रान्सीसी वैज्ञानिक डी ब्रॉली ने 1923 में किया।उन्होंने स्थापित किया कि इलैक्ट्रान अपने नाभिक की परक्रिमा कणों के रूप में नहीं करते वरन तरंग के रूप में करते हैं।और चूंकि तरंगें अपने परिक्रमा पथ में पूरी तरंगों अर्थात पूरे तरंग–दैघ्र्यों में ही हो सकती हैं, अतएव इलैक्ट्रान अपनी ऊर्जा के अनुसार विविक्त ह्यडिस्क्रीटहृ कक्षाओं ह्यवृत्तोंहृ में ही परिक्रमा कर सकते हैं, उन कक्षाओं की त्रिज्या लगातार न बढ़कर विविक्त चरणों में ही बढ़ सकती है।जब परमाणुओं को ऊर्जा दी जाती है तब उनमें परिक्रमारत इलैक्ट्रान–तरंगें निम्न ऊर्जा कक्षा से उच्च ऊर्जा कक्षा में पदार्पण करती हैं।और जब परमाणु ऊर्जा देते हैं तब परिक्रमारत इलैक्ट्रान–तरंगें उच्च ऊर्जा कक्षा से निम्न ऊर्जा कक्षा में पदार्पण करती हुई निश्चित मात्रा वाले ऊर्जा के कणों का विकिरण करती हैं।
जहां भी प्रकाश किरण की तीव्रता को मापकर उपयोग करना होता है वहां आइन्स्टाइन के ही सिद्धान्त का उपयोग कर प्रकाश सैलों का निर्मांण किया जाता है। कैमरों में प्रकाश का सही मापना अच्छे फोटो के लिये अत्यंत आवश्यक है।कैमरों को स्वतःचालित बनाने में प्रकाश सैलों का उपयोग कर ‘उद्भासन मापी’ ह्यएक्सपोज़र मीटरहृ बनाये जाते हैंै, इस युक्ति ने कैमरों को बहुत लोकप्रिय बना दिया है।अब ऐसी युक्तियों का और भी विकास कर उन से निम्नप्रकाश का प्रवर्धन भी किया जा सकता है।ऐसी प्रवर्धन करने वाली युक्तियों के उपयोग से निम्न प्र्रकाश मेंं फोटो लेने के लिये विशेष कैमरे ह्यअवरक्त किरण कैमरे अलग चीज हैंहृ भी बनाये जाते हैं। टैलिविजन कैमरों में , तारों के फोटो लेने वाले कैमरों आदि में इनका बहुल उपयोग होता है।सौर प्रकाश– सैलों का उपयोग प्रकाश–सैल चालित कैलकुलेटर, घड़ियों, और उपग्रहों को ऊर्जा प्रदान करने वाली बैटरियों में भी होता है। नाभिकीय बैटरियों का जीवन लम्बा होता है किन्तु उनमें कुछ समस्याएं हो सकती हैं। और कार आदि में प्रयुक्त रासायनिक बैटरियों का जीवन छोटा होता है जिसे बढ़ाने के लिये उन्हें पुनरावेशित करने की आवश्यकता होती रहती है।बिना सौर प्रकाश– सैलों के उपग्रहों का जीवन अल्पकालीन ही हो सकता है क्योंकि अंतरिक्ष में रासायनिक बैटरियों को पुनरावेशित करने का यह कार्य सौर प्रकाश– सैल ही कर सकती हैं।सौर उपग्रह शनि के अवलोकनार्थ भेजे गये ‘कैसीनी’ अन्वषेक को लगातार वर्षों तक ऊर्जा देने का कार्य यही प्रकाश– सैलैं ही करेंगी।
आइंस्टाइन ने ‘ऑन द क्वाण्टम थ्योरी ऑफ रेडियेशन’ में यह भी प्रस्तुत किया कि प्रकाश किरण अर्थात फोटानों के अवशोषण करने पर उस पदार्थ के परमाणु उत्तेजित अवस्था में पहुंच जाते हैं अर्थात उस परमाणु में परिक्रमारत इलैक्ट्रान–तरंगें अपने परिपथ से उच्च ऊर्जा वाली कक्षा पर कूद जाती हैं।और तुरंत ही कूदकर वापिस निम्न ऊर्जा वाली कक्षा पर चली आती हैं किन्तु साथ ही वे निश्चित मात्रा की ऊर्जा वाले फोटानों का उत्सर्जन करती हैं।1917 वाले ही सिद्धान्त में आइंस्टाइन ने एक और प्रक्रिया की संभावना की भविष्यवाणी की – ‘एक फोटान एक उत्तेजित परमाणु को एक फोटान का उत्सर्जन करने के लिये प्रेरित कर सकता है।और फिर यह दोनों फोटान दो और उत्तेजित परमाणुओं को दो फोटानों के उत्सर्जन के लिये प्रेरित कर सकते हैं। और इस तरह चार से आठ और फिर सोलह करते हुए इच्छानुसार बढ़ाए जा सकते हैं।इन फोटानों की ऊर्जा की मात्रा एक समान होती है।ऐसा करते हुए यदि अधिकांश परमाणु इस तरह प्रेरित किये जा सकें तथा उन्हें समंजित कर उनका एक अंशु बनाया जा सके तब अंशु शक्तिशाली बनेगा।’ उनके इस सिद्धान्त को ‘उद्दीपित उत्सर्जन’ ह्यस्टिम्युलेटैड एमिशनहृ कहते हैं
एक लम्बी अवधि के बाद 1954 में चाल्र्स टाउनसैंड ने लेज़र तो नहीं उसके छोटे भाई ‘मेज़र’ का आविष्कार किया था। ‘मेज़र’ प्रकाश के वर्णक्रम में कार्य न कर सूक्ष्म तरंगों पर लेज़र के सिद्धान्त के अनुसार ही कार्य करता है।आइंस्टाइन का ‘उद्दीपित उत्सर्जन’ ह्यस्टिम्युलेटैड एमिशनहृ सिद्धान्त लेज़र या मेज़र बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक है। किन्तु इसके साथ ही उन उत्सर्जित फोटानों का ‘कला संबद्ध’ ह्यकोहैरैन्टहृ भी होना अत्यंत आवश्यक है।आइंस्टाइन ने अपने प्रपत्र में इस ‘कला संबद्धता’ की चर्चा नहीं की थी यछपि उसकी भावना इस अर्थ में छिपी थी कि वे सभी फोटान एक समान हैं। और सम्भवतः उनके प्रपत्र में इस कला सम्बद्धता की चर्चा न होने के कारण लेज़र के आविष्कार में विलम्ब हुआ।तब भी इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि आइंस्टाइन का ‘उद्दीपित उत्सर्जन’ का सिद्धान्त लेज़र के मूल में अनिवार्य रूप से है।लेज़र का अर्थ ही है – विकिरण के ‘उद्दीपित उत्सर्जन’ द्वारा प्रकाश का प्रवर्धन ।
आज के विश्व में लेज़र का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है : कॉम्पैक्ट डिस्क, डीवीडी, सूक्ष्म शल्य चिकित्साएं, प्रकाश उत्सर्जक डायोड, विमान हेतु लेज़र जाइरो, आदि आदि अनंत वस्तुएं लेज़र के ही कारण अपना अद्भुत कार्य कर रही हैं।यहां कुछ विशेष उपयोगों की चर्चा जोड़ना रुचिकर होगा।3 लाख चौरासी हजार कि .मी .दूर परिक्रमारत चन्द्र की दूरी को कुछ सैंटिमीटरों की परिशुद्धता से मापने का कार्य भी लेज़र संभव बनाता है।दूरी मापने की ऐसी परिशुद्धता का उपयोग आज ज्वालामुखी तथा भूकम्पों आदि की भविष्यवाणी करने के लिये किया जा रहा है और लाखों आदमियों की जानें बचाइ जा रही हैं।ऐसी लेज़र युक्तियां कम्पन की ताीव्रता का मप भी करती हैं। दूर संचार के लिये लेज़र का उपयोग करने से फाइबर ऑप्टिक की एक पतली सी नली में लाखों संवाद भेजे जा सकते हैं जिसके लिये अन्यथा करोड़ों रुपयों के ताम्बे के तारों का उपयोग करना पड़ता।इसीलिये आजकल दूरभाष अत्यंत सस्ता हो गया है और उसमें रव भी कम होता है क्योंकि प्रकाश के वर्णक्रम में ‘रेडियो रव’ का असर नगण्य होता है।यद्यपि युद्ध से बचना चाहिये किन्तु अनिवार्य होने पर तो अपना बचाव करना ही पड़ता है।युद्ध में एक लेज़र निर्देशित बम दस या बीस साधारण बमों का कार्य करता ही है साथ ही वह अनावश्यक जान – माल का नुकसान भी बचाता है।
आइंस्टाइन के 1905 में प्रतिपादित विशेष सापेक्षिकता के सिद्धान्त की एक भविष्यवाणी यह भी थी कि घड़ियां दिक आयाम में अपनी तेज या धीरी गति के अनुसार समय के आयाम में क्रमशःधीरे या तेज चलती हैं तथा तीव्र गुरुत्वाकर्षण भी समय को धीरे करता है। अक्सर यह सोचा जाता है कि आइंस्टाइन के 1905 में प्रतिपादित इस विशेष सापेक्षिकता के सिद्धान्त का इस धीमी गति से चलने वाली पृथ्वी पर रहने वाले मानव की गतिविधियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि वह तो बहुत तीव्र गति पर तथा अधिक गुरुत्वाकर्षण पर ही अपना ‘रंग’ दिखलाती है।किन्तु सत्य यह है कि इन दोनों तथ्यों के उपयोग के बिना ‘स्थिति निर्धारण तंत्र’ ह्यजीपीएसहृ सही स्थिति नहीं बतला सकता। ‘स्थिति निर्धारण’ ह्यजीपीएसहृतंत्र वास्तव में किसी भी स्थिति का ऑंकलन उस स्थान पर लगे ‘स्थिति निर्धारण तंत्र’ तक चार उपग्रहों से भेजे गये विशेष रेडियो संकेत आने में लगे अंतराल को मापकर निर्धारित करता है।उन चार अंतरालों में प्रकाश के वेग का गुणा कर उन चार उपग्रहों से उस स्थान की दूरियां ज्ञात की जाती हैं। फिर वह ‘स्थिति निर्धारण’ ह्यजीपीएसहृतंत्र त्रिकोणमिति के द्वारा उन चार दूरियों का उपयोग कर उस स्थान का निर्धारण करता है। फलस्वरूप स्थान के प्राप्त मान की परिशुद्धता समय के मापन की परिशुद्धता पर निर्भर करती है।अर्थात जमीन पर स्थित घड़ी और उपग्रह स्थित घड़ियों का परिशुद्ध तथा याथार्थिक होना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिये उपग्रह स्थित घड़ियों का परमाणु चालित होना आवश्यक तो है किन्तु पर्याप्त नहीं है।उनमें आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त के अनुसार उन्हें समंजित करना भी आवश्यक है।
‘स्थिति निर्धारण तंत्र’ में गतिमान उपग्रह लगभग 20000 या 25000 कि .मी . प्रति घंटे की गति से चलते हैं, जब कि पृ्रथ्वी भूमध्यरेखा पर लगभग 1800 कि .मी . प्रतिघंटे की गति से अपने अक्ष पर परिक्रमा करती है।अतएव तुलना में ‘स्थिति निर्धारण तंत्र’ में गतिमान उपग्रहों की घड़ियां पृथ्वी की घड़ियों की अपेक्षा प्रतिदिन लगभग सात माइक्रोसैकैंड प्रतिदिन की दर से धीरे चलेंगी। साथ ही उपग्रहों पर गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की सतह की तुलना में एक चौथाई होता है जिस अंतर के कारण भूस्थित घड़ियां प्रतिदिन लगभग 45 माइक्रोसैकैंड प्रतिदिन की दर से धीरे होंगी।वैसे रोजमर्रा के कार्य के लिये प्रतिदिन 38 ु स्एच्। ह्यइतने हीहृ माइक्रोसैकैंड की त्रुटि का प्रभाव अपनी घड़ियों में देखने के लिये हमें तीन चार वर्ष तक का समय लग सकता है।किन्तु मात्र एक माइक्रोसैकैंड की गलती से दूरी नापने में 300 मीटर की गलती होगीॐॐ
1905 की जुलाई में उन्होंने अपना चौथा प्रपत्र प्रस्तुत किया – ‘ऑन द मोशन ऑफ स्माल पार्टिकल्स सस्पैन्डैड इन लिक्विड एट रैस्ट रिक्वायर्ड बाइ द मॉलिक्युलर–काइनैटिक थ्योरी आफ हीट’।इसके पहिले अणुओं के इस तरह की हलचल को ‘ब्राउनियन गति’ कहा जाता था और उनकी गतियों को ‘रैंडम’ अर्थात यादृच्छिक कहकर छोड़ दिया जाता था। आइन्स्टाइन ने अपने प्रपत्र में जो सूत्र दिये उनकी मदद से उन अणुओं की गति को समझा जा सकता था।इसके लिये उन्होने ‘सांख्यिकीय यांत्रिकी’ ह्यस्तातस्तिचिल् म्एच्हान्च्स्हिृ का उपयोग किया।इसका आम आदमी से क्या संबन्ध ? शेयर बाजार के कुशल खिलाड़ियों से पूछिये। वे बतलाएंगे कि वे किस तरह शेयर बाजार की अबूझ सी हलचलों को समझने में मदद करते हैं।इन सूत्रों की मदद से ओज़ोन की परत पर पड़ रहे प्रभावों की हलचल को भी समझने में मदद मिलती है।किन्तु इस छोटे से दिखने वाले प्रपत्र में भी आइन्स्टाइन की अप्रतिम प्रतिभा देखी जा सकती है।यादृच्छिक अर्थात रैन्डम हलचल में नियम ढूढ़ना रव में संगीत ढूढ़ने से भी अधिक कठिन है क्योंकि संगीत तो मनपरक है तथा विज्ञान वस्तुपरक। संगीत में कुछ लोग ही मान जायें तो पर्यप्त होता है किन्तु विज्ञान में लगभग सभी का मानना आवश्यक है।
परमाणु बम की कल्पना का मूलाधार है आइंस्टाइन का सूत्र ई Äएम सी वर्ग, अर्थात पदार्थ उर्जा का संघनित रूप है तथा उसकी ऊर्जा ‘ई‘ उसकी मात्रा ‘एम’ में प्रकाश के वेग ‘सी’ के वर्ग के गुणनफल के बराबर होती है।यह सूत्र उनके पॉंचवें प्रपत्र में 1905 में ही प्रस्तुत की गई अवधारणा का विकसित रूप है जिसे उन्होंने 1907 के प्रपत्र में प्रस्तुत किया था। सूर्य के अनंत– से लगने वाले ऊर्जा स्रोत का रहस्य यही हाइड्रोजन पदार्थ का ऊर्जा में बदलना होता है ह्यसाथ ही फलस्वरूप हीलियम भी बनती हैहृ यदि हम एक कप पानी को पूरी तरह ऊर्जा में बदल सकें तो उतनी ऊर्जा से एक विशाल जलजहाज सारे विश्व का भ्रमण कर सकता है।परमाणु बम की शक्ति का प्रदर्शन हिरोशिमा तथा नागासाकी में देखने मिला था।किन्तु उसी सिद्धान्त का उपयोग करते हुए परमाणु शक्ति स्टेशन विकसित विश्व की लगभग आधी उर्जा की आवश्यकता पूरी कर रहे है।और भविष्य की सुरसा के समान बढ़ती ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा करने की क्षमता न तो तैल कोयले इत्यादि में, न पृथ्वी पर आ रहे सौर विकिरण में, न पवन ऊर्जा में, न भूगर्भतााप में न सागर की लहरों इत्यादि में है वरन अभी तक केवल परमाणु ऊर्जा ही में है।यदि संगलन विधि से परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने में हमारे वैज्ञानिक सफल होते हैं तब विखंडन विधि जनित अवशिष्ट पदार्थों की समस्या पैदा ही नहीं होगी, ताप शक्ति संयत्रों के समान प्रदूषण भी नहीं होगा और समस्त विश्व के लिये आवश्यक ऊर्जा भी प्राप्त हो सकेगी क्योंकि हम पृथ्वी पर ही अनेकानेक लघु सूर्यों का निर्माण कर सकेंगे। यहां यह भी कहना उचित होगा कि परमाणु बम की कल्पना तथा रचना के मूलाधार आइन्स्टाइन ने 1945 के बाद परमाणु युद्ध का सतत विरोध किया था।उन्होने ‘नेशन्स लीग’ में मानवाधिकार स्थापित करने में भी कार्य किया था।
वैज्ञानिक तो अभी भी आइन्स्टाइन के सूत्रों से इस ब्रह्माण्ड को समझने का प्रयास कर रहे हैं, उन्होने अभी तक आइन्स्टाइन के अद्वितीय सूत्रों का पूरी तरह दोहण नहीं कर पाया है।ब्रह्माण्ड के प्रसार में त्वरण है इसे समझने कै लिये भी आइन्स्टाइन के विशेष सापेक्षता सिद्धान्त के सूत्रों का उपयोग करना पड़ा. और विस्तार में यह त्वरण क्यों हो रहा है इसे समझने के लिये भी उन्हें आइन्स्टाइन के ‘कॉस्मालॉजिकल नियतांक’ का उपयोग करना पड़ रहा हैऌ यह वही नियतांक है जिसे लगाकर आइन्स्टाइन ने अपनी गलती मानकर खारिज कर दिया थाॐ हम रोजमर्रा के जीवन में भी आज के प्रगतिशील विश्व की कल्पना आइंस्टाइन के बिना तो कर ही नहीं सकतेऌ भविष्य के समृद्ध जीवन की आशा भी आइंस्टाइन के बिना नहीं कर सकते।