आखिर ये दुनिया
कैसे बनी, ये सवाल हमारे जेहन में अक्सहर घूमता रहता है। इसी सवाल पर दुनिया के
विभिन्ना धर्मों ने ही नहीं, वैज्ञानिकों ने भी मंथन किया है। मशहूर वैज्ञानिक आइंसटाइन को भी यह
सवाल मथता रहा है। उनके इस बारे में निम्न विचार रहे हैं-
ü मैं ये जानना चाहता हूं कि ये दुनिया आखिर भगवान ने कैसे बनाई।
मेरी रुचि किसी इस या उस धार्मिक ग्रंथ में लिखी बातों पर आधारित किसी ऐसी या वैसी
अदभुत और चमत्कारिक घटनाओं को समझने में नहीं है। मैं भगवान के विचार समझना चाहता
हूं
ü किसी व्यक्तिगत भगवान का आइडिया एक एंथ्रोपोलॉजिकल कॉन्सेप्ट
है, जिसे मैं गंभीरता से नहीं लेता।
ü अगर लोग केवल इसलिए भद्र हैं,
क्योंकि वो सजा से डरते हैं, और उन्हें अपनी
भलाई के बदले किसी दैवी ईनाम की उम्मीद है, तो ये जानकर मुझे
बेहद निराशा होगी कि मानव सभ्यता में दुनियाभर के धर्मों का बस यही योगदान रहा है।
मैं ऐसे किसी व्यक्तिगत ईश्वर की कल्पना भी नहीं कर पाता तो किसी व्यक्ति के जीवन
और उसके रोजमर्रा के कामकाज को निर्देशित करता हो, या फिर वो,
जो सुप्रीम न्यायाधीश की तरह किसी स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हो और
अपने ही हाथों रचे गए प्राणियों के बारे में फैसले लेता हो। मैं ऐसा इस सच्चाई के
बावजूद नहीं कर पाता कि आधुनिक विज्ञान के कार्य-कारण के मशीनी सिद्धांत को काफी
हद तक शक का फायदा मिला हुआ है ( आइंस्टीन यहां क्वांटम मैकेनिक्स और ढहते
नियतिवाद के बारे में कह रहे हैं)। मेरी धार्मिकता, उस अनंत
उत्साह की विनम्र प्रशंसा में है, जो हमारी कमजोर और
क्षणभंगुर समझ के बावजूद थोड़ा-बहुत हम सबमें मौजूद है। नैतिकता सर्वोच्च
प्राथमिकता की चीज है...लेकिन केवल हमारे लिए, भगवान के लिए
नहीं।
ü ऐसी कोई चीज ईश्वर कैसे हो सकती है, जो अपनी ही रचना को पुरस्कृत करे या फिर उसके
विनाश पर उतारू हो जाए। मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जिसके उद्देश्य में
हम अपनी कामनाओं के प्रतिरूप तलाशते हैं, संक्षेप में ईश्वर
कुछ और नहीं, बल्कि छुद्र मानवीय इच्छाओं का ही प्रतिबिंब
है। मैं ये भी नहीं मानता कि कोई अपने शरीर की मृत्यु के बाद भी बचा रहता है,
हालांकि दूसरों के प्रति नफरत जताने वाले कुछ गर्व से भरे डरावने
धार्मिक विचार आत्माओं के वजूद को साबित करने में पूरी ताकत लगा देते हैं।
ü मैं ऐसे ईश्वर को तवज्जो नहीं दे सकता जो हम मानवों जैसी ही
अनुभूतियों और क्रोध-अहंकार-नफरत जैसी तमाम बुराइयों से भरा हो। मैं आत्मा के
विचार को कभी नहीं मान सकता और न ही मैं ये मानना चाहूंगा कि अपनी भौतिक मृत्यु को
बाद भी कोई वजूद में है। कोई अपने वाहियात अभिमान या किसी धार्मिक डर की वजह से
अगर ऐसा नहीं मानना चाहता, तो न माने। मैं तो
मानवीय चेतना, जीवन के चिरंतन रहस्य और वर्तमान विश्व जैसा
भी है, उसकी विविधता और संरचना से ही खुश हूं। ये सृष्टि एक मिलीजुली कोशिश का नतीजा है, सूक्ष्म
से सूक्ष्म कण ने भी नियमबद्ध होकर बेहद तार्किक ढंग से एकसाथ सम्मिलित होकर इस
अनंत सृष्टि को रचने में अपना पुरजोर योगदान दिया है। ये दुनिया-ये ब्रह्मांड इसी
मिलीजुली कोशिश और कुछ प्राकृतिक नियमों का उदघोष भर है, जिसे
आप हर दिन अपने आस-पास बिल्कुल साफ देख और छूकर महसूस कर सकते हैं।
ü वैज्ञानिक शोध इस विचार पर आधारित होते हैं कि हमारे आस-पास और
इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी घटता है उसके लिए प्रकृति के नियम ही जिम्मेदार होते
हैं। यहां तक कि हमारे क्रियाकलाप भी इन्हीं नियमों से तय होते हैं। इसलिए, एक रिसर्च साइंटिस्ट शायद ही कभी ये यकीन करने
को तैयार हो कि हमारे आस-पास की रोजमर्रा की जिंदगी में घटने वाली घटनाएं किसी
प्रार्थना या फिर किसी सर्वशक्तिमान की इच्छा से प्रभावित होती हैं।
ü सच्चाई तो ये है कि मेरे धार्मिक विश्वासों के बारे में आप जो
कुछ भी पढ़ते हैं, वो एक झूठ के अलावा
कुछ और नहीं। एक ऐसा झूठ जिसे बार-बार योजनाबद्ध तरीके से दोहराया जाता है। मैं
दुनिया के किसी पंथ या समूह के व्यक्तिगत ईश्वर पर विश्वास नहीं करता और मैंने कभी
इससे इनकार नहीं किया, बल्कि हर बार और भी जोरदार तरीके से
इसकी घोषणा की है। अगर मुझमें धार्मिकता का कोई भी अंश है, तो
वो इस दुनिया के लिए असीमित प्रेम और सम्मान है, जिसके कुछ
रहस्यों को विज्ञान अब तक समझने में सफल रहा है।
ü ‘कॉस्मिक रिलिजन’
का ये एहसास किसी ऐसे व्यक्ति को करवाना बेहद मुश्किल है जो दुनियावी धर्मों के
दलदल में गले तक धंसा हो और जो पीढ़ियों पुराने अपने धार्मिक विश्वास को छोड़, कुछ और सुनने तक को तैयार न हो। ऐसी ही
धार्मिक अडिगता, हर युग के शिखर धर्म-पुरुषों की पहचान रही
है, जिनके विश्वास तर्क आधारित नहीं होते, वो अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं के लिए कारण नहीं तलाशते, यहां तक कि कई धर्म-नेताओं को तो ऐसा भगवान भी स्वीकार्य नहीं होता जिसका
आकार मानव जैसा हो। हम सब प्रकृति की संतानें हैं, जिनका
जन्म प्रकृति के ही कुछ नियमों के तहत हुआ है, लेकिन अब हम
प्रकृति के उन नियमों को ही अपना ईमान नहीं बनाना चाहते। कोई भी चर्च ऐसा नहीं है,
जिनके आधारभूत उपदेशों में इन नियमों की बात की गई हो। मेरे विचार
से इस सृष्टि को रचने वाले प्राकृतिक नियमों के प्रति लोगों में सम्मान की भावना
उत्पन्न करना और इसे आने वाली पीढ़ियों तक प्रसारित करना ही कला और विज्ञान की
सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
ü मैं एक पैटर्न देखता हूं तो उसकी खूबसूरती में खो जाता हूं, मैं उस पैटर्न के रचयिता की तस्वीर की कल्पना
नहीं कर सकता। इसी तरह रोज ये जानने के लिए मैं अपनी घड़ी देखता हूं कि, इस वक्त क्या बजा है? लेकिन रोज ऐसा करने के दौरान एक बार भी मेरा ख्यालों में उस
घड़ीसाज की तस्वीर नहीं उभरती जिसने फैक्ट्री में मेरी घड़ी बनाई होगी। ऐसा इसलिए
क्योंकि मानव मस्तिष्क फोर डायमेंशन्स (चार विमाएं –
लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई या
गहराई और समय) को एकसाथ समझने में सक्षम नहीं है, इसलिए वो
भगवान का अनुभव कैसे कर सकता है, जिसके समक्ष हजारों साल और
हजारों डायमेंशन्स एक में सिमट जाते हैं।
ü इतनी तरक्की और इतने आधुनिक ज्ञान के बाद भी हम ब्रह्मांड के
बारे में कुछ भी नहीं जानते। मानव विकासवाद की शुरुआत से लेकर अब तक अर्जित हमारा
सारा ज्ञान किसी स्कूल के बच्चे जैसा ही है। संभवत:
भविष्य में इसमें कुछ और इजाफा हो, हम कई नई बातें जान जाएं, लेकिन फिर भी चीजों की असली प्रकृति, कुछ ऐसा रहस्य
है, जिसे हम शायद कभी नहीं जान सकेंगे,
कभी नहीं।
ü मैं बार-बार कहता रहा हूं कि मेरे विचार से व्यक्तिगत ईश्वर की
अवधारणा बिल्कुल बचकानी है। लेकिन मैं व्यावसायिक नास्तिकों के उस दिग्विजयकारी
उत्साह में भागीदारी नहीं करना चाहता जो अपनी बात मनवाने के जुनून में भरकर
नौजवानो से उनके धार्मिक विश्वासों को छुड़वाने के लिए किसी भी हद तक जाने को
तैयार रहते हैं। बल्कि, प्रकृति को समझने में
अपनी बौद्धिक और मानवीय कमियों के साथ मैं विनम्रता भरे व्यवहार को प्राथमिकता
दूंगा।
ü भविष्य का धर्म एक ‘कॉस्मिक
रिलिजन’ होगा। ये दुनियाभर के व्यक्तिगत भगवानों की जगह ले लेगा और
बिना तर्क के धार्मिक विश्वासों और तमाम धार्मिक क्रिया-कलापों, कर्म-कांडों को बेमानी कर देगा। ये प्राकृतिक
भी होगा और आध्यात्मिक भी, ये उन अनुभवों से बने तर्कों पर
आधारित होगा कि सभी प्राकृतिक और आध्यात्मिक चीजें इस तरह एक हैं जिनका समझा जा
सकने वाला एक अर्थ है। ये जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, इसका
जवाब बौद्ध धर्म में है। अगर कोई ऐसा धर्म है जो भविष्य में आधुनिक
वैज्ञानिक जरूरतों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकता है, तो
वो बौद्ध धर्म ही होगा।
-अल्बर्ट आइंस्टीन