14 जून, 2011

जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी : बिग बैंग थ्योरी

आइन्स्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (General Theory of Relativity) विज्ञान के चमत्कारिक सिद्धांतों में से एक है। और चीजों को देखने का हमारा नज़रिया पूरी तरह बदल देती है। इस थ्योरी को समझना हालांकि अत्यन्त मुश्किल है, फिर भी इस लेख के द्वारा कुछ समझने की कोशिश करते हैं।

लगभग चार सौ साल पहले न्यूटन ने गिरते हुए सेब को देखकर एक महत्वपूर्ण खोज की थी जिसका नाम है गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड में पदार्थिक पिण्ड एक दूसरे को अत्यन्त हल्के बल से खींचते हैं। इस बल को नाम दिया गया गुरुत्वाकर्षण बल। इसी बल के कारण हम धरती पर अपने कदम जमा पाते हैं। और यही बल ज़मीन को सूर्य के चारों ओर घुमाने के लिये लिये जिम्मेदार होता है। ब्रह्माण्ड में मौजूद हर पिण्ड गुरुत्वीय बलों के अधीन होकर गति कर रहा है। बाद में हुई कुछ और खोजों से मालूम हुआ है कि रौशनी भी गुरुत्वीय बल के कारण अपने पथ से भटक जाती है। और कभी कभी तो इतनी भटकती है कि उसकी दिशा घूमकर वही हो जाती है जिस दिशा से वह चली थी। इन तथ्यों की रौशनी में जब आइंस्टीन ने ब्रह्माण्ड का अध्ययन किया तो उसकी एक बिल्कुल नयी शक्ल निकलकर सामने आयी।
कल्पना कीजिए एक ऐसे बिन्दु की जिसके आसपास कुछ नहीं है। यहां तक कि उसके आसपास जगह भी नहीं है। न ही उस बिन्दु पर बाहर से कोई बल आकर्षण या प्रतिकर्षण का लग रहा है। फिर उस बिन्दु में विस्फोट होता है और वह कई भागों में बंट जाता है। निश्चित ही ये भाग एक दूसरे से दूर जाने लगेंगे। और इसके लिये ये जगह को भी खुद से पैदा करेंगे। जो किसी ऐसे गोले के आकार में होनी चाहिए जो गुब्बारे की तरह लगातार फैल रहा है। और इसके अन्दर मौजूद सभी भाग विस्फोट हुए बिन्दु से बाहर की ओर सीढ़ी रेखा में चलते जायेंगे। किन्तु अगर ये भाग एक दूसरे को परस्पर किसी कमजोर बल द्वारा आकर्षित करें? तो फिर इनके एक दूसरे से दूर जाने की दिशा इनके आकर्षण बल पर भी निर्भर करने लगेगी। फिर इनकी गति सीढ़ी रेखा में नहीं रह जायेगी। अगर इन बिन्दुओं के समूह को आकाश माना जाये तो यह आकाश सीधा न होकर वक्र (कर्व) होगा
हमारा यूनिवर्स भी कुछ इसी तरह का है जिसमें तारे मंदाकिनियां और दूसरे आकाशीय पिंड बिन्दुओं के रूप में मौजूद हैं। एक बिन्दुवत अत्यन्त गर्म व सघन पिण्ड के विस्फोट द्वारा यह यह असंख्य बिन्दुओं में विभाजित हुआ जो आज के सितारे, ग्रह व उपग्रह हैं। ये सब एक दूसरे को अपने अपने गुरुत्वीय बलों से आकर्षित कर रहे हैं। जो स्पेस में कहीं पर कम है तो कहीं अत्यन्त अधिक। आइंन्स्टीन का सिद्धान्त गुरुत्वीय बलों की उत्पत्ति की भी व्याख्या करता है।

अब अपनी कल्पना को और आगे बढ़ाते हुए मान लीजिए कि विस्फोट के बाद पैदा हुए असंख्य बिन्दुओं में से एक पर कोई व्यक्ति (आब्जर्वर) मौजूद है। अब वह दूसरे बिन्दुओं को जब गति करते हुए देखता है तो उसे उन बिन्दुओं की गति का पथ जो भी दिखाई देगा वह निर्भर करेगा उन सभी बिन्दुओं की गतियों पर, और उन गतियों द्वारा बदलते उनके आकर्षण बलों पर (क्योंकि यह बल दूरी पर निर्भर करता है।)। अगर इसमें यह तथ्य भी जोड़ दिया जाये कि प्रकाश रेखा जो कि उन बिन्दुओं के दिखाई देने का एकमात्र स्रोत है वह भी आकाश में मौजूद आकर्षण बलों द्वारा अपने पथ से भटक जाती है तो चीजों के दिखाई देने का मामला और जटिल हो जाता है।

इस तरह की चमत्कारिक निष्कर्षों तक हमें ले जाती है आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी। आइंस्टीन ने अपने सिद्धान्त को एक समीकरण द्वारा व्यक्त किया जिसका हल एक लम्बे समय तक गणितज्ञों और भौतिकविदों के लिये चुनौती बना रहा। बाद में शिवर्ज़चाइल्ड नामक वैज्ञानिक ने पहली बार इसका निश्चित हल प्राप्त करने में सफलता पाई।

आइंस्टीन की समीकरणों को हल करने पर कुछ अनोखी चीज़ें सामने आती हैं। जैसे कि सिंगुलैरिटी, ब्लैक होल्स और वार्म होल्स।
गुरुत्वीय क्षेत्रों में प्रकाश की चाल धीमी हो जाती है। यानि वक्त की रफ्तार भी धीमी हो जाती है।
दिक्‌-काल (स्पेस टाइम) बताता है कि पदार्थ को कैसे गति करनी है और पदार्थ दिक्‌-काल को बताता है कि उसे कैसे कर्व होना (मुड़ना) है।
वर्तमान में आइंस्टीन की समीकरणों के कई हल मौजूद है जिनसे कुछ रोचक तथ्य निकलकर सामने आते हैं। जैसे कि गोडेल यूनिवर्स जिसमें काल यात्रा मुमकिन है। यानि भूतकाल या भविष्यकाल में सफर किया जा सकता है।
अब एक छोटी सी सिचुएशन पर डिस्कस करते हैं।
मान लिया हमारी पृथ्वी से कुछ दूर पर एक तारा स्थित है। उस तारे की रौशनी हम तक दो तरीके से आ सकती है। एक सीधे पथ द्वारा। और दूसरी एक भारी पिण्ड से गुजरकर जो किसी और दिशा में जाती हुई तारे की रौशनी को अपनी उच्च ग्रैविटी की वजह से मोड़ कर हमारी पृथ्वी पर भेज देता है। जबकि तारे से आने वाली सीढ़ी रौशनी की किरण एक ब्लैक होल द्वारा रुक जाती है जो कि पृथ्वी और तारे के बीच में मौजूद है। अब पृथ्वी पर मौजूद कोई दर्शक जब उस तारे की दूरी नापेगा तो वह वास्तविक दूरी से बहुत ज्यादा निकल कर आयेगी क्योंकि यह दूरी उस किरण के आधार पर नपी होगी जो पिण्ड द्वारा घूमकर दर्शक तक आ रही है। जबकि ब्लैक होल के पास से गुजरते हुए उस तारे तक काफी जल्दी पहुंचा जा सकता है। बशर्ते कि इस बात का ध्यान रखा जाये कि ब्लैक होल का दैत्याकार आकर्षण यात्री को अपने लपेटे में न ले ले। इस तरह की सिचुएशन ऐसे शोर्ट कट्‌स की संभावना बता रही है जिनसे यूनिवर्स में किसी जगह उम्मीद से कहीं ज्यादा जल्दी पहुंचा जा सकता है। इन शोर्ट कट्‌स को भौतिक जगत में वार्म होल्स (wormholes) के नाम से जाना जाता है।
ये एक आसान सी सिचुएशन की बात हुई। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि पृथ्वी, पिण्ड, तारा, ब्लैक होल सभी अपने अपने पथ पर गतिमान हैं। ऐसे में कोई निष्कर्ष निकाल पाना निहायत मुश्किल हो जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड के रहस्यों की व्याख्या करने के लिये बनी आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी बहुत से नये रहस्यों को पैदा करती है।