16 जून, 2011

अलबर्ट आइन्स्टीन और रवीन्द्रनाथ टैगोर का संवाद


''धर्म हमारे सत्य को मूल्यवान बनाता है''

अलबर्ट आइन्स्टीन बीसवीं सदी की एक ऐसी विलक्षण और प्रखरतम वैज्ञानिक चेतना का नाम है, जिसने हमारे विश्व को वैज्ञानिक विकास के नए और उच्चतर सोपान प्रदान किये थे । अपने युग की उस प्रखरतम मेधा के विकास को शरीर विज्ञान के आधार पर समझने के लिए आइन्स्टीन की मृत्यु के पश्चात वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में संरक्षित कर लिया था, जो आज भी सुरक्षित रखा गया है । यह जानने की कोशिश की जा रही है कि सामान्य मनुष्य और एक अति उच्च स्तरीय मेधावान पुरूष के मस्तिष्क की बनावट में क्या मूलभूत फर्क होता है जिसके कारण ऐसी प्रतिभा का विकास संभव होता होगा । वर्षो के अनुसंधान के बाद भी विज्ञान अभी कोई निर्णायक निष्कर्ष पर नहीं पहुॅच सका है । वह किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुॅच सकेगा यह अभी भी संदिग्ध ही है क्योंकि भारतीय दर्शन के अनुसार चेतना के स्तरों का विकास शरीर पर निर्भर नहीं होता । यह एक नितांत आत्यंतिक घटना होती है , जिसे नकार कर हम होमर से लेकर सूरदास तक के कितने ही विलक्षण जन्मांधों की ज्योतिहीन ऑखों से प्रकट हुए अनिर्वचनीय सौंदर्यलोक का रहस्य कभी जान नहीं पाएगें। फिर भी विज्ञान की इस कोशिश् से इतना अवश्य होगा कि कुछ ऐसी अबूझ भ्रांतियों का निवारण हो सकेगा जो मनुष्य के लिए सत्य के मार्ग में कभी भी और कहीं भी बाधा बन जाया करती है ।
जर्मनी के एक यहूदी परिवार में जन्में आइन्स्टीन केवल विज्ञान ही नहीं, साहित्य कला, संगीत और अध्यात्म के भी मर्मज्ञ थे । यही कारण है कि 14 जुलाई 1930 को अपनी जर्मन यात्रा के दौरान विश्वकवि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे मिलने जब उनके निवास पर पहुचे तो वह एक ऐतिहासिक क्षण हो गया । विज्ञान और कविता के इन दो शिखरों के बीच उस दिन ''सत्य की प्रकृति'' को लेकर एक अनूठा संवाद हुआ था । प्रस्तुत है इस संवाद का अंग्रेजी से अविकल अनुवाद । ....
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आइंस्टीन : ''क्या आप मानते हैं कि ईश्वरत्व की संसार से कोई पृथक सत्ता है ?''
टैगोर : ''पृथक नहीं । मानवीयता के अनंत व्यक्तित्वों में ब्रम्हाण्ड समाहित है । ऐसी कोई चीज़ नहीं हो सकती जो मानवीय व्यक्तित्व के नियमों से बाहर हो । इससे यही सिध्द होता है कि ब्रम्हांड का सत्य मानवीयता का भी सत्य है । इसे समझने के लिए मैंने एक वैज्ञानिक तथ्य को लिया है । पदार्थ प्रोटान और इलेक्ट्रानों से बना है । इनके बीच एक ''गेप'' होती है । परंतु पदार्थ एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान को जोड़ने वाली इस छोटी सी दूरी के बावजूद ठोस नज़र आता है । इसी प्रकार मानवीयता की छोटी छोटी व्यक्ति इकाइयॉ है, पर उनका आपसी मानवीय संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को संबंधों का एक अर्न्तसंबंध भी है जो मानवीय संसार को एक जीवंत एकता प्रदान करता है (जैसे एक एक इलेक्ट्रान और प्रोटान पृथक सत्ता रखते हुए भीआपस में जुड़े हुए हैं वैसे ही ) हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं । इस सत्य को मैं कला के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से और मनुष्य की धार्मिक चेतना के माध्यम से तलाश करता रहा हूँ । ''
आइंस्टीन: ''ब्रम्हाण्ड की प्रकृति के बारे में दो अलग अलग मत है एक 'ब्रम्हाण्ड की एकता मनुष्यता पर निर्भर है, दूसरा यह कि ब्रम्हाण्ड एक ऐसा सत्य है जो मानवीय फेक्टर से परे है, उस पर उसकी निर्भरता नहीं है । ''
टैगोर : ''जब हमारा ब्रम्हाण्ड मनुष्य के साथ एक सा तालबध्द होता है तब ईश्वरत्व को हम सत्य की भॉति जानते हैं । उसे हम सौन्दर्य के रूप में महसूस करते हैं ।''
आइंस्टीन: ''यह तो ब्रम्हाण्ड की केवल मानवीय अवधारणा है । ''
टैगोर : ''दूसरी धारणा हो भी नहीं सकती । यह संसार मानवीय संसार है । इसकी वैज्ञानिक अवधारणा वैज्ञानिक मनुष्य की अवधारणा है । हमसे पृथक इसीलिए संसार का कोई अस्तित्व नहीं है । यह एक सापेक्ष संसार है जो अपने सत्य के लिए हमारी चेतना पर निर्भर रहता है । तर्क और आनंद का एक मानदंड होता है जो संसार को उसका सत्य प्रदान करता है । यह मानदंड उस ब्रम्हाण्ड पुरूष का है जिसका अनुभव हमारे अनुभवों में प्रकट होता है । ''
आइंस्टीन : ''क्या यह मानवीय अस्तित्व का या उसके वास्तविक अस्तित्व का प्रत्यक्षीकरण है ?
टैगोर : ''हॉ , एक दिव्य यथार्थ । इसे हम अपनी भावनाओं और गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं । हम अपनी सीमाओं के माध्यम से ब्रम्हाण्ड पुरूष का प्रत्यक्षीकरण करते हैं जिसकी कोई व्यक्तिगत सीमाएॅ नहीं है । यह र्निव्यैयक्तिक गहन आवश्यकताएॅ हैं । हमारी व्यक्तिगत सत्य चेतना सार्वभौमिक महत्व पाती है । धर्म हमारे सत्यों को मूल्यवान बनाता है (अन्यथा उनका कोई मूल्य ही नहीं होता ) और हम सत्य को उससे अपनी अनुषांगिकता के कारण अच्छी तरह जान पाते हैं। ''
आइंस्टीन : ''तो क्या सत्य अथवा सौन्दर्य का मनुष्य से परे कोई स्वाधीन या अनाश्रित अस्तित्व नहीं है ? ''
टैगोर : ''नहीं । ''
आइंस्टीन : ''यदि मनुष्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं हो तो क्या यह भुवन भास्कर (यह देदीप्यमान सूर्य) क्या सुंदर नहीं रह जाएगें ?''
टैगोर : ''नहीं रहेंगे ।''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सौन्दर्य दृष्टि से सही मानता हूॅ, परंतु सत्य के मामले में नहीं ।
टैगोर : ''क्यों नहीं ?'' सत्य का प्रत्यक्षीकरण भी तो मनुष्य के माध्यम से ही होता है ।''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि मैं सही हूँ , यह मेरा धर्म है ।
टैगौर : ''सौंदर्य एक पूर्ण 'सम-लयता' में उपलब्ध होता है जो केवल सार्वभौमिक होकर ही पायी जा सकती है और सत्य केवल सार्वभौमिक मन की ही पूर्ण ज्ञानबुध्दि है । हम अलग अलग लोग अपनी भूलों और महाभूलों के द्वारा सत्य तक पहुॅचते हैं और वह भी अपने संचयित अनुभवों के द्वारा और अपनी ज्योर्तिमय चेतना के द्वारा । अन्यथा हमें उसका पता ही कैसे चलता?''
आइंस्टीन : ''मैं इसे सिध्द नहीं कर सकता कि वैज्ञानिक सत्य को एक ऐसे सत्य के रूप में उद्भूत होना चाहिए जो पूरी तरह मनुष्यता से परे और अपने आप में पूरी तरह अनाश्रित या स्वतंत्र हो , परंतु मैं इसमें दृढ़ता से विश्वास करता हूँ । उदाहरण के लिए मैं मानता हूँ कि पायथागोरस का ज्यामिति में सिध्दांत जो कुछ कहता है वह सत्य लगभग मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है । ऐसी ही इस वास्तविकता का भी एक अपना सत्य है । इसमें एक का भी इंकार दूसरे के अस्तित्व को नकार देगा । ''
टैगोर : ''सत्य जो सार्वभौमिक चेतना से एकाकार है, उसे अनिवार्य रूप से मानवीय होना ही पड़ेगा । अन्यथा हम व्यक्ति तौर पर जो कुछ जानते या महसूस करते हों उसे सत्य कहा ही नहीं जा सकेगा । कम से कम वह सत्य जिसे वैज्ञानिक सत्य कहा जाता है उसे एक लॉजिक या एक तर्क के माध्यम से अन्वेषित किया जाता है, परंतु वह भी अंतत: मानवीय माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। हिन्दु दर्शन के अनुसार ब्रम्ह की परम सत्य है , उसे कोई सर्वथा अलग थलग होकर नहीं जान सकता है, और ना उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है । उसे तभी पा सकते हैं जब अपने व्यक्तित्व को उसकी अनंतता में समाहित कर दिया जा सके । परंतु ऐसे सत्य का विज्ञान से कोई संबंध नहीं हो सकता । हम सत्य की जिस प्रकृति पर चर्चा कर रहे हैं वह उसके प्रकटीकरण की चर्चा है , अर्थात जो प्रत्यक्ष हो सके वही मानवीय मन के लिए सत्य है , इसीलिए मानव को माया का रूप कहा जा सकता है ''
आइंस्टीन : ''तो, आपके मतानुसार जो हिन्दु अवधारणा है उसमें मिथ्यात्व का अनुभव व्यक्ति विशेष का नहीं संपूर्ण मानवता का अनुभव है ?''
टैगौर : ''विज्ञान में हम सत्य के करीब पहुॅचने के लिए एक अनुशासन से गुजरते हैं जिसमें हमें अपने व्यक्तिगत मस्तिष्कों की सीमाएॅ हटा कर ही प्रवेश मिलता हैं। इस प्रकार सत्य का जो सार हम पाते हैं वह सार्वभौमिक मनुष्य का सच होता है ।
आइंस्टीन : ''हमारी प्राथमिक समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना पर निर्भर नहीं है ?'
टैगोर : ''जिसे हम सत्य कहते हैं वह वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ पक्षों के बीच एक बौध्दिक सामंजस्य है । और ये दोनों ही पक्ष उस 'सुपर पर्सनल मनुष्य' से संबंधित है । ''
आइंस्टीन: ''मानवीयता से परे सत्य के अस्तित्व को लेकर हमारा जो पक्ष है उसे समझाया या सिध्द नहीं किया जा सकता, परंतु यह एक विश्वास है जिससे कोई भी रहित नहीं है । यहाँ तक कि छोटे से छोटा जीव भी । हम सत्य को एक 'सुपर ह्यूमन' वस्तुनिष्ठता प्रदान करते हैं । हमारे लिए अपरिहार्य है ये सत्य जो हमारे अस्तित्व , हमारे अनुभव और हमारी बुध्दि पर निर्भर नहीं है ,भले ही हम कह न सके कि इसका क्या मतलब है ?''
टैगोर : ''विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि एक टेबल जो ठोस चीज की तरह नजर आता है वह मात्र एक दृष्टिगोचर दिखावट है । जिसे मानवीय दिमाग एक टेबल की तरह महसूस करता है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा, यदि वह
निरंतर ....4
महसूस करने वाला दिमाग न हो तो । इसी के साथ यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि टेबल की परम भौतिक सच्चाई अलग अलग घूमते हुए विद्युतीय बलों के केन्द्रों का एक विशाल समूह होना ही है , जिसका मानवीय चेतना से भी संबंध है । सत्य के साक्षात्कार में ब्रम्हाण्ड पुरूष के मन और व्यक्ति स्तर पर एक अलौकिक संघर्ष होता है । पुर्नमिलान की एक सनातन प्रक्रिया विज्ञान और दर्शन और हमारे नीति शास्त्रों में निरंतर चलती रहती है । किसी भी मामले में यदि कोई ऐसा सत्य है जो मानवीयता से संबंधित नहीं है तो उसका हमारे लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है ।''
आइंस्टीन : ''तब तो मैं आपसे ज्यादा धार्मिक हूँ ....... । ''
टैगोर : '' मेरा धर्म उस ब्रम्हांड पुरूष (ईश्वर) की चेतना के साथ मेरे अपने होने की निरंतर मिलन प्रक्रिया में है । मेरे हिबर्ट-व्याख्यान का भी यही विषय था जिसे मैंने ''धार्मिक मनुष्य'' कहा था । ''