22 जून, 2011

भारत की पुरातन अवधारणा सही सिद्ध हो रही है

ताइवान राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के वुन यी शु एक ताइवानी वैज्ञानिक ने ब्रह्माण्ड के उद्भव की एक परिकल्पना प्रस्तुत की है जो आइन्स्टाइन के आगे जा सकती है। (ताइवान को हम उसके लघु आकार के कारण छोटा न आंकें, उसकी 'आरक्षित धन राशि' भारत से अधिक है !)

अभी तक आइन्स्टाइन के सूत्रों पर आधारित सिद्धान्त या परिकल्पनाएं, जैसे 'महान विस्फ़ोट', उस विस्फ़ोट के क्षण के पहले की घटनाओं की कल्पना भी नहीं कर सकतीं क्योंकि वह 'विचित्रता' (सिंगुलैरिटी) का क्षण है जो हमारी समझ के परे है, अर्थात उस क्षण के तथा उसके पूर्व के काल की वैज्ञानिक अपने सूत्रों के अनुसार कल्पना भी नहीं कर सकते।

वुन यी शु आइन्स्टाइन की यह बात तो मानते हैं कि दिक और काल एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं, और वे यह भी‌ मानते हैं कि लम्बाइयां तथा द्रव्यमान उस पदार्थ के वेग पर निर्भर करते हैं। किन्तु वे आइन्स्टाइन के आगे जाकर यह दावा करते हैं कि न तो प्रकाश का वेग अचर है और न गुरुत्वीय अचर ही अचर है।

उनके ब्रह्माण्डीय सूत्रों में अद्भुत बातें तो हैं किन्तु कोई 'विचित्रता' नहीं है अर्थात वे अपने सूत्रों के द्वारा महान विस्फ़ोट के पूर्व की‌ भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। वे पाते हैं कि ब्रह्माण्ड का विस्फ़ोट होता है, प्रसार होता है, और फ़िर प्रसार रुककर संकुचन प्रारंभ हो जाता जो अंत में एक बिन्दु में समाहित हो जाता है और फ़िर विस्फ़ोट होता है, और यह क्रम सतत चलता रहता है।


ब्रह्माण्ड की यही अवधारणा हमारे पुराणों में मिलती है -  सृष्टि के रचयिता 'ब्रह्मा'  का दिन वह है जब प्रसार हो रहा होता है और रात्रि वह है जब संकुचन हो रहा होता है, और यह सतत होता रहता है।

सावधानी का एक शब्द – आइन्स्टाइन के विरोध में प्रति माह नहीं तो प्रति वर्ष कोई न कोई सिद्धान्त आते रह्ते हैं किन्तु जब प्रमाणों कि परख होती है तब वे एक बुलबुले की तरह फ़ूट जाते हैं। मैं कामना करता हूं कि यह सिद्धान्त प्रमाणों पर खरा उतरे!!